आज फिर ले आये मेरे कदम
मुझे उन भूली बिसरी गलियों में
जहाँ नन्हे नन्हे कदम
भरी दुपहरी में दौड़ा करते थे,
ना धूप की फिकर थी
ना गर्मी का एहसास था
जहाँ अब्बा-कट्टी से
दोस्ती का फैसला होता था|
याद है मुझे वो
पापा का मेले में ले जाना
और हर छोटी बड़ी
ख्वाहिशों की पूरती करना,
जहाँ माँ के आचल से लिपट के
सारे गम दूर हो जाते थे
आज फिर उन्ही
गलियों में लौट आई हूं।
ना जाने कहाँ खो गए वो पल
इस दौड़-भाग की ज़िंदगी में
चाहूं भी तो ना समेट
पाऊंगी उन खूबसूरत लम्हो को
जो कहीं खो से गये है
इन भूली बिसरी गलियों में ।
सृजन- ऋषिका